Monday, 29 July 2013

ऐ खुदा तू ही समझा माँ को ……….

ऐ खुदा तू ही समझा माँ को ……….

जिन्दगी कब कौन सा रूप ले ले कौन जानता है। किसे कब , कहाँ , क्या मिल जाये और कब किससे क्या खो जाये , ये भी कोई नही जानता। सब ईश्वर के हाथो में हैं , वो कब किसे क्या दे उनकी मर्ज़ी, कब किससे क्या छीन ले उनकी मर्ज़ी। अगर देखा जाये तो हम सब ईश्वर के हाथो की कठपुतलियाँ ही तो हैं। वो जब चाहे जैसे चाहे नचा ले ……………….! जिन्दगी के किस मोड़ पर आपको क्या मिलना है और क्या खो जाना है उनके सिवा
कौन जानता है। जीवन का एक ऐसा ही खुबसूरत मोड़ होता है बचपन।
बचपन ———- सभी के जीवन का सबसे खुबसूरत समय। बचपन जो सभी चिन्ताओ से मुक्त होता है, न खाने की टेंशन न सोने की टेंशन। जब जो जी चाहे कर डालो , एक पल पिटाई खाकर भी दुसरे पल ऐसे शरारते करना जैसे कुछ हुआ ही नही हो, बचपन में ही तो होता था। बड़े होकर तो सब बदल जाता है, भावनाएं भी और इन्सान भी। समय अपनी रफ़्तार से सबको बदल देता है। एक एक दिन गुजर कर कैसे महीने और साल गुजर जाते हैं पता ही नही चलता। लगता है जैसे कल की ही बात हो जब हम छोटे थे (वैसे छोटे तो हम अब भी हैं, मैं जब भी कहती हूँ की वो भी क्या जमाना था जब हम छोटे थे तो मम्मी कहती हैं कि हाँ तू तो बूढी हो गयी है न अब ) और दुनिया भर की शरारते किया करते थे, हम भाई बहन आपस में बहुत लड़ा करते थे , अगर मम्मी – पापा के शब्दों में कहूँ तो हम से ज्यादा दुनिया में कोई नही झगड़ता होगा। हम जब भी लड़ते थे या अब भी जब कभी मिलते हैं और झगड़ते हैं तो वो यही कहते हैं कि पड़ोसियों के बच्चे बिलकुल नही लड़ते, किसी के घर से इतने सोर की आवाज़ नही आती जितनी हमारे घर से आती है, वैसे देखा जाये तो यह डायलोग सभी पेरेंट्स का फवरेट डायलोग होता है। पेरेंट्स चाहे कितना भी डांट ले मगर बचपन में अगर झगडे नही किये लड़ाई नही की, शरारते नही की तो बचपन अधुरा सा लगता है और अगर यह सब बचपन में नहीं करेंगे तो कब करेंगे ? 
कहते हैं कि बच्चो को समझाना बेहद आसान होता है बड़ो को समझाने के बजाये और यह सच भी है! बच्चे अगर जिद करते हैं तो जल्दी ही मान भी जाते हैं लेकिन बड़ो ने अगर एक बार जिद पकड़ ली तो फिर वो किसी की नही सुनते फिर चाहे भगवान ही आकर उनसे क्यों न कहें। बच्चे अगर रूठ जाते हैं तो सिर्फ एक चॉकलेट से ही मान जाते हैं लेकिन बड़ो को मनाना तो बेहद मुश्किल काम है। खासकर मम्मी लोगो को। अब आप सोचेंगे कि मैं ये क्या कह रही हूँ। लेकिन यही सच है, माँ अपनी बात तो बच्चो से आसानी से मनवा लेती हैं लेकिन बच्चो की बात जाने क्यों नही मानती।
अगर मैं अपनी मम्मी की बात करूं तो वो भी बिलकुल ऐसी ही हैं। अपनी बात मनवा लेती हैं लेकिन मेरी नही मानती। जब उनकी तबियत ख़राब हो जाती है तो दवा खाने से पता नही क्यों डरती हैं ? कहती हैं कि घरेलू नुस्खे अपना कर ही ठीक हो जाएँगी, दवा उनको सूट नही करती। ये भी कोई बात हुई भला कि खुद का तो ध्यान रखो मत बस दुसरो का ही ध्यान रखो और अगर मेरी आवाज़ में भी जरा सी खराश आ जाये तो परेशान हो जाती हैं। मैं कहती हूँ कि माँ दूध पिया करिये, अपनी भी तो सेहत का ध्यान रखो मगर कहाँ ? सुनना ही कहाँ है किसी को। बड़े हैं न अपनी ही मर्जी से करते हैं सब। और एक मेरी आंटी  उनको भी मैं तो समझा समझा कर थक जाती हूँ लेकिन वो भी मेरी एक बात नही सुनती। न समय पर खाना न सोना, सारा दिन बस अपने परिवार के लिए ही न्योछावर कर देना। थोडा सा टाइम खुद को भी तो देना चाहिए न। अगर रीड की हड्डी ही सही नही होगी तो शरीर कैसे काम करेगा? वैसे ही अगर माँ की सेहत खराब होगी तो घर का बैलेंस ही बिगड़ जायेगा। 
मैं बस इतनी रिक्वेस्ट करना चाहती हूँ सभी मम्मियो से कि जिस तरह आप अपने बच्चो की सेहत को लेकर परेशान हो जाती हो, जिस तरह पुरे परिवार का ध्यान रखती हो उसी तरह थोडा सा ध्यान अपना खुद का भी रखा करिये क्योंकि जब आप की तबियत खराब हो जाती है तो लगता है जैसे सारी दुनिया बीमार हो। घर घर नही लगता क्योंकि घर की आत्मा तो बीमार हो जाती है न। और कुछ भी अच्छा नही लगता तो प्लीज अपना भी ध्यान रखा करिये। रखेंगी न ?????????

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